नमस्कार
नवरात्रों का आनन्द लेते हुए आप सभी को विजयादशमी की अग्रिम शुभकामनाएं. उत्तरोत्तर अपने गन्तव्य की दिशा में अग्रगामी वेबपोर्टल साहित्यम के वर्तमानाद्यातन के साथ हम पुनः उपस्थित हैं.
हिन्दुस्तानी-साहित्य सेवार्थ एक शैशव-प्रयास
नमस्कार
नवरात्रों का आनन्द लेते हुए आप सभी को विजयादशमी की अग्रिम शुभकामनाएं. उत्तरोत्तर अपने गन्तव्य की दिशा में अग्रगामी वेबपोर्टल साहित्यम के वर्तमानाद्यातन के साथ हम पुनः उपस्थित हैं.
किसी दिन
किसी कविता में
मैं लिखूँगी उन तमाम औरतों की जीवनी
जो नज़रबंद थीं
इन ऊँची ऊँची
किलों की दीवारों के पीछे
अपनी गुल्लक फोड़ के बैठी
हुई है।
एक गहरी सोच में डूबी हुई
है।
क्यों दिला पाई न बच्चे को
खिलौना,
ख़ुद से मां इस बात पे रूठी हुई है।
आये घर पर आज हमारे दिल्ली
वाले दादाजी ।
दादाजी के भाई प्यारे दिल्ली
वाले दादाजी ।।
खाने वाली चीजें लाये , ढेरों
खेल-खिलौने भी।
भूआ के जो नन्हा - मुन्ना उसके लिए बिछौने भी,
मौन नहीं रहिए -
उजियाले की हार देखकर
मौन नहीं रहिए.
अखबारों के खोजी-खबरी
सम्पादक चुप हैं.
जन-जीवन की व्यथा-कथा के -
अनुवादक चुप हैं.
अपने ही कहने लगें, जाओ अब तो दूर ।
तब लगती है चोट जब, दिखता गहन गरूर।।
बूढ़ा तन-मन सोच में, होता
है बेचैन।
तब होती है पीर जब, सुनता तीखे बैन।।
दान-पुण्य की बातें हम न करें तो कौन करेगा!! भारत में जन्म लेनेवाला, दान का भाव साथ लेकर जन्मता है। बात ये है कि वे भी और हम भी इसी माटी के हैं। समय के साथ वे जोंक बन गए और हम मनुष्य के मनुष्य ही रहे। उन्हें जोंक का आहार-व्यवहार बड़ा पसन्द आता। हमारे लिए नापसन्दगी जैसा कुछ था ही नहीं,,,। हमारी जुर्रत भी नहीं थी कि हम अपनी पसन्द बतायें। हम तो वे हैं जो ट्रेन की निचली बर्थ देकर मिडिल पर एडजस्ट हो जाते हैं। जरूरत पड़े तो बस के बोनट पर आराम भी फरमा लेते हैं।
शाम के समय पार्क से उठकर औरतें अपने-अपने ठिकानों पर चल पड़ी। नीता और शीतल पार्क के गेट से बाहर निकल रही थी कि सामने मादा कुक्कर पर नज़र पड़ी। दोनों के मुँह से एक साथ निकला, "हे भगवान! फिर से पेट से है यह तो। अभी कुछ दिन पहले ही तो जने थे पूरे छह पिल्ले...
टिंग-टॉंग, टिंग-टॉंग, टिंग-टॉंग। “कौन है?” मैंने शॉल हटाते हुए पूछा। “पोस्टमैन” उधर से आवाज आयी। “आती हूँ” कहते हुए मैं चप्पलें पैर में फँसाने लगी। फँसाने इसलिए कि चिट्ठी लेकर मेरा फिर से सोने का इरादा था। वैसे भी छुट्टियाँ कम ही मिलती हैं उस पर छुट्टी
संस्कृत (गज्जलिका भावानुवाद सहिता)
पक्ष्मणोरालम्बितस्य
हार्द्रस्वप्नस्याधुना
भावयामि मौक्तिकाभासे मुदा सञ्जीवनम् ।
बलवती होती व्यथायें क्या करें
खत्म हैं
संभावनायें क्या
करें
आ गईं होकर विवश कुरुक्षेत्र
तक
पांडवों की याचनायें क्या करें
करायचे ते करून झाले अता न काही करणे
गझलेसाठी जगणे आणिक गझलेसाठी
मरणे
आठवणींनी धरले आहे माझ्या
दारी धरणे
तशी मागणी मोठी नाही, केवळ मी मोहरणे
पाह्या ऐ पळेस तिजो कुसा अलाचारिया
बाँदर नचाणा लगा तिज्जो इ मदारिया
उमराँ जो ठगी लेया मोर भी धुआरिया
पैर जे बटाये फिरी ट्हाये नीं घुटारिया
बरसाने तक अइवे में ही मेरी सगरी उमर गुजर गई
राधा तोय रिझइवे में ही मेरी सगरी उमर गुजर गई
तेरे बिन अब नहीं सटैगी तो पै रीझ गयो
मेरौ मन
इतनी बात बतइवे में ही मेरी सगरी उमर गुजर गई
या में बस एक अद्भुत यही बात है
प्रीत में रीत देखी नहीं जात
है
या कों ब्यौपार कह कें न
लज्जित करौ
प्रियतमे प्रीत जीवन की सौगात है
बैठक पौली
बूढ़े स्याणे कम
होगे
साँखी फ्हाली ज़कड़ी लाणे कम होगे
पहल्यां आली बात
रही ना कोए बी
खंडका धोती दामण आणे कम होगे