3 जनवरी 2025

माज़ी की गलियाँ - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ



ये माज़ी की गलियाँ, वो यादों के घेरे

जहाँ रात-दिन हैं उदासी के फेरे

हैं अंजान से जाने-पहचाने चेहरे

मेरे दर्द-ओ-वहशत से बेगाने चेहरे

हैं ओढ़े मोहज़्ज़ब वफ़ा की नक़ाबें

पिये हैं जो जी भर ख़ुदी की शराबें

है इन पर चढ़ा उल्फ़तों का मुलम्मा

हैं बातें पहेली, अदाएँ मोअम्मा

हैं बदशक्ल चेहरे नक़ाबों के पीछे

हैं बदरंग दिल इस मुलम्मे के नीचे

फ़क़त दर्द ही हर मोअम्मे का हल है

बहुत तल्ख़ शीरींबयानी का फल है

यहाँ मोड़ ही मोड़ हैं, ख़म ही ख़म हैं

कि इन रास्तों पर बड़े ज़ेर-ओ-बम हैं

ख़ताएँ भी हैं, लग़्ज़िशें भी बड़ी हैं

तमन्नाओं की लाशें बिखरी पड़ी हैं

वहाँ रंज-ओ-ग़म के सिवा क्या मिलेगा

वहाँ हर क़दम इम्तेहाँ अपना लेगा

तभी तो मैं जाती नहीं उस गली में

वहाँ रंग है ख़ून का हर कली में

हटाओ भी यारो ये माज़ी की बातें

वहीं फेंक आओ ये बेचैन रातें

दिलाओ न अब याद मुझको वो आलम

निगाहें कहीं फिर न हो जाएँ पुरनम

 

: मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

मुबारक साल नया – देवमणि पाण्डेय



आकाश में दिन भर जलकर जब

घर लौट के सूरज आया है

तब शाम ने अपने आंचल में

हौले से उसे छुपाया है


सुरमई शाम की पलकों पर

कितने अरमान मचलते हैं

कुछ ख़्वाब सजे हैं आंखों में

कुछ आस के दीपक जलते हैं


यह रात खिलेगी, चांद हसीं

जादू बनकर छा जाएगा

उस वक़्त कोई प्यारा सपना

इन आंखों को महकाएगा


उम्मीद की कल इक नई सुबह

धीमे से पलकें खोलेगी

ख़ुशियों का चेहरा चमकेगा

जब साल मुबारक बोलेगी

 

: देवमणि_पांडेय

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं – सन्ध्या यादव



भाग्यशाली हूँ, ईर्ष्या, कुण्ठा, प्रतिस्पर्धा का कारण हूँ

वैसे तो रीढ़ की हड्डी ही उसके संसार की हूँ ,पर

ब्रांडेड, चमकदार कपड़ों से ढँकी -छुपी रहती हूँ

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…

 

मेरी खामोशी व्हिस्की के गिलास की बर्फ है

धीरे-धीरे पिघलती है ,ठण्डक बनाये रखती हूँ

सावन के अंधे सी हरी-भरी  रहती, दिखती हूँ

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…

 

एक इंची मुस्कान ही मेरी, मेरा गुज़ारा-भत्ता है

टॉमी की पीठ पर हाथ फिरा मुझे पुचकारता है

मेरी औकात शब्दों से नहीं इशारों में समझाता है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…

 

मेरी दमक-गमक का सेहरा उसके माथे पे सजता है

उसके रूतबे का कोहिनूर मेरे मंगलसूत्र में चमकता है

मेरा संस्कार सिंदूर की कीमत चुकाता है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं...

 

चढ़ावे में चढ़ाये नारियल सा मुझे पूजता है

प्रतिष्ठा की हथेली पर खैनी सा मुझे मलता है

फूँक मार कर मेरी अपेक्षा को गर्द सा उड़ाता है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं...

 

उसकी अय्याशी मेरी चुप्पी के बिछौने पर गंधाती है

चाँद पर सूत कातती बुढ़िया देर रात मुझे समझाती है

सप्तपदी के सात वचन प्रेमचंद का "पर्दा" बन जाते हैं

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं

 

: सन्ध्या यादव

संस्कृत दोहे हिन्दी अर्थ सहित - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय


 

याति भीतिभयभीषणं वर्षं दर्पितमेव,

जनयेज्जनगणमङ्गलं ,नववर्षं हे देव !

 

नवलचिन्तनं दर्शनं चलनं मननं स्यात्

नवलं यज्जीवनमिदं हे भगवन् भूयात्

 

भीतिभूखभय से भरा रुग्ण गया चौबीस ।

जनगणमनमंगल करे,हे भगवन् पच्चीस ।

 

नयी सोच चिंतन नया नयी रीति हे ईश

नयी उमंगों से मधुर जीवन दे पच्चीस 

 

: डा०लक्ष्मीनारायण पाण्डेय

दोहे - राजमूर्ति 'सौरभ'


 

राधे! राधे!राधिका, मोहन!मोहन! श्याम।

दोनों ही जपने लगे,अपना-अपना नाम।।

 

एक दूसरे को जपें, निशिदिन, आठों याम।

साधारण प्रेमी नहीं, हैं राधा-घनश्याम।।

 

ख़ुशियाँ क़ाग़ज़ पर बनी, फूलों की तस्वीर।

ग़म देजाते हैं हमें,अश्कों की जागीर।।

 

सज्जन को करना पड़ा, दुर्जन का सम्मान।

ज्यों कोई मज़बूर हो, करने को विषपान।।

 

करे कबूतर गुटरगूँ, कोयल गाये गान।

होजाती है व्यक्ति की, वाणी से पहचान।।

 

एक लली वृषभानु की, दूजा नन्दकिशोर।

सम्मोहन में बँध गये, दोनों ही चितचोर।।

 

सबको व्याकुल करगयी, जनकसुता की पीर।

भनक किसी को कब लगी, जब रोये रघुवीर।।

 

धन्य निरखि मुख देवकी, मोहक ललित ललाम।

विपदा के घन छँट गये, प्रकट हुए घनश्याम।।

 

: राजमूर्ति 'सौरभ'

एक नायाब पेशकश - 2024 की दिलकश ग़ज़लें



25 अगस्त, 1953 को  जितौरा ,पियरो,आरा , बिहार में जन्मे आदरणीय रमेश कँवल जी भी उन चुनिन्दा लोगों में शामिल हैं जिनकी कि ऊर्जा कोविड के  बाद कई गुना बढ़ गयी. कोविड की त्रासदी को दरकिनार करते हुए आप ने ईसवी सन 2021 में विभिन्न शायरों द्वारा सृजित 2020 की 600 नुमाइंदा ग़ज़लों का सफलता पूर्वक संकलन एवं सम्पादन कर के शायरी के आसमान में एक नक्षत्र टाँक दिया था.

 

आप यहीं नहीं रुके, सन 2022 में आप ने 21 वीं सदी के 21 वें साल की बेहतरीन ग़ज़लों का संकलन एवं सम्पादन कर के अदब के चाहने वालों को एक अनमोल भेंट प्रदान दी. 2022 में ही आपने अपनी तरह का एक और अनूठा संकलन पेश किया जिसे विभिन्न शायर-शायरात की एक रुक्नी ग़ज़लों से सजाया गया.

 

जब सन 2023 का वर्ष समग्र भारतवर्ष में अमृत महोत्सव के रूप में मनाया गया तो आपने भी इस स्वर्णिम अवसर पर अदब की ख़िदमत में देश भर के अनेक शायर-शायरात से सम्पर्क कर भिन्न-भिन्न ७५ रदीफ़ों की ग़ज़लें एकत्रित कर उनका संकलन एवं सम्पादन कर के राष्ट्रीय उत्सव के आनन्द में अभिवृद्धि की. 2023 में आपने जो अन्य महत्कर्म किये उनमें उनके काव्यगुरू आदरणीय हफ़ीज़ बनारसी जी की ग़ज़लों के “क्या सुनाएँ हाले-दिल” एवं “आज फूलों में ताज़गी कम है” नामक दो संग्रहों के प्रकाशन के साथ-साथ “वंदन!शुभ अभिवन्दन” शीर्षक के अन्तर्गत देव-स्तुति विषयक काव्य संग्रह भी सम्मिलित है.

 


जिस उम्र में लोग लेटने-बैठने या बहुत से बहुत टहलने में अपना समय ख़र्च कर देते हैं उस आयु में आदरणीय रमेश कँवल जी एक के बाद एक धमाके करते जा रहे हैं. शायद ही शायरी से जुड़ा कोई इलाका होगा जहाँ के लोग रमेश जी के प्रयासों से परिचित न हों. सन 2024 प्रत्येक भारतीय के लिए आल्हाद वर्धक रहा. 500 वर्षों के घोर संघर्ष के बाद अयोध्या में राम लला की पुनः विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा हुई. 22 जनवरी, 2024 का दिन इतिहास में एक अद्भुत दिन की तरह याद किया जायेगा. अपवाद स्वरुप कुछ विघ्न-संतोषियों को भुला दिया जाए तो प्रत्येक भारतवासी ने उस दिन उल्लास का प्रत्यक्ष अनुभव किया. सभी को लगा कि उनके अपने घर में कुछ अच्छा हो रहा है. यह धर्म से अधिक आस्था का विषय है और शायद इसीलिए रमेश जी को भी पुनः कुछ अभिनव करने की प्रेरणा मिली. आपने एक और ऐतिहासिक कार्य करने की ठान ली और बस जी जान से जुट गये.

 

देश-विदेश के अनेकानेक शायर-शायरात से सम्पर्क कर के 24 अलग-अलग बह्रों में ग़ज़लें भेजने का अनुरोध किया. विशेषकर सभी से आग्रह किया कि ये ग़ज़लें 2024 में ही सृजित हों. इस तरह 95 शायर-शायरात की 24 बहरों में 876 ग़ज़लों का अभूतपूर्व संकलन-सम्पादन कर के आपने एक और इतिहास रच दिया. 710 पन्नों की यह पुस्तक किसी पुराण की तरह प्रतीत होती है. ग़ज़ल के चाहने वालों के लिए यह किसी पुराण से कम है भी नहीं. प्रशासनिक सेवाओं के अनुभवों का सदुपयोग करते हुए रमेश जी ने इस संकलन की साज-सज्जा में अपना सर्वस्व लगा दिया है. अनुक्रमाणिका ही देखें तो पोएट वाइज, ग़ज़ल वाइज, बह्रवाइज है. सभी के परिचय अलग से दिये गये हैं. उसके अलावे सभी के फ़ोन नम्बर की अलग से सूची है. किस शायर-शायरा की कितनी ग़ज़लें सम्मिलित हैं उसकी एक सूची अलग से है. पुस्तक के फ़्लैप्स में पतियों द्वारा पत्नियों एवं पत्नियों द्वारा पतियों के लिए लिखे गये 24 शेर प्रस्तुत किये गये हैं. एक खण्ड में शायर-शायरात के रंगीन फोटो हैं और दूसरे खण्ड में उनके जीवनसाथी के साथ के रंगीन फोटो हैं. हर बह्र के अरकान दिये गये हैं साथ में प्रचलित फ़िल्मी गीतों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत किये गये हैं. पुस्तक की शुरुआत में ही भारतीय जन-मन के आराध्य रामलला के मनोहारी दर्शन हैं. इस संग्रह के आरम्भ में ही आपने वसुधैव कुटुम्बकम को प्रणाम करते हुए अपने दादा जी एवं दादी जी को भी याद किया है. एक और अद्भुत बात कि यह संकलन आपने अपने मित्रों को समर्पित कर के एक और अद्भुत आत्मीयता का परिचय दिया है.

 


श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 710 पन्नों की इस अद्भुत पुस्तक और इस पुस्तक  के सृजक आदरणीय रमेश जी के बारे में जितना लिखा जाय कम ही लग रहा है. लेखनी की अपनी सीमा है इसलिए इसी निवेदन के साथ बात को अल्प विराम देता हूँ कि पुस्तकों का संग्रह करने वालों के रैक्स में ऐसी पुस्तक अवश्य होनी चाहिए.

 

पुस्तक का नाम - 2024 की दिलकश ग़ज़लें

संकलन एवं सम्पादन – रमेश 'कँवल', फ़ोन नम्बर 8789761287

प्रकाशन – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली, फोन नम्बर 8447540078

नये साल के दोहे - रमेश शर्मा



आई है नव वर्ष की, नई नवेली भोर ।

खिड़की से दिल की मुझे, झाँक रहा चितचोर ।।

 

पहुँची हो चौबीस में, लेखन से कुछ ठेस ।

क्षमा ह्रदय से माँगता, उनसे आज रमेश ।।

 

किया गलत चौबीस में, जिसने भी जो काज ।

आशा है नव वर्ष में , आ जायें  वे बाज ।।

 

मदिरा में डूबे रहे ,  लोग समूची  रात ।

अंग्रेजी नव वर्ष की, यह कैसी शुरुआत ।।

 

पन्नों मे इतिहास के, लिखा स्वयं का नाम ।

चला साल चौबीस ये, यादें छोड़ तमाम ।।

 

ढेरों मिली बधाइयाँ, बेहिसाब संदेश ।

मिली घड़ी की सूइयाँ, ज्यों ही रात रमेश।।

 

बदली है तारीख बस, बदले नही विचार ।

नये साल का कर रहे, व्यर्थ सभी सत्कार ।।

 

नये साल का कीजिये, जोरों से आगाज ।

दीवारों पर टांगिये, नया कलैंडर आज ।।

: रमेश शर्मा

बुलबुल का भी दिल अब पिंजरे में शायद बेताब नहीं होता - मसऊद जाफ़री



बुलबुल का भी दिल अब पिंजरे में शायद बेताब नहीं होता

जिस दिन से सुना है   फूलों पर वो हुस्नो शबाब नहीं होता

 

मैं उन का क़सीदा क्या लिक्खूँ इस शहरे सितम बरदोश में अब

नहीं आँख रही नर्गिस की तरह कोई गाल गुलाब नहीं होता

 

साक़ी भी वही मैख़ाना भी,क्या बात है जाने क्यूँ यारो

पहले जो हुआ करता था कभी वो रंगे शराब नहीं होता

 

शैतान हर इक सू रक्साँ है पस्ती प् हमारी खन्दाँ है

इस अह्द में शायद अब लोगो कोई कारे सवाब नहीं होता

 

चेहरों प् सजे चेहरे हैं यहाँ तुम इन को नहीं पढ़ पाओगे

इस दौर में शायद चेहरा भी अब दिल की किताब नहीं होता

 

वो बज़्म है बज़्मे-अहले-ख़िरद वाँ हद्दे अदब भी ज़रूरी है

ये अहले जुनूँ की महफ़िल है यहाँ आप जनाब नहीं होता

 

हाँ, शौक़े जुनूँ के रस्ते में इक मंज़िल ऐसी आती है

जहाँ फ़र्के दुई मिट जाता है और कोई हिजाब नहीं होता

 

मज़लूम की खातिर रक्खे हैं मुंसिफ ने हज़ारों दार ओ रसन

क़ातिल यूँ ही फिरता रहता है और  कोई हिसाब नहीं होता

 

इस अह्द के हाथों में लोगो आते हैं सहीफ़े वो जिन में

दुन्या की हिकायत होती है बस प्यार का बाब नहीं होता

 

मैं अपने पुराने कपड़ो में ये सोच के खुश हो लेता हूँ

मसऊद सभी को दुन्या में हासिल कमखाब नहीं होता

: मसऊद जाफ़री